मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ते हुए दिल-दिमाग को तो दम मिलता है
पर आँखें नम हो जाती हैं। ऐसा एकसाथ होता है। निराला को याद करते-पढ़ते हुए भी
अक्सर ऐसा होता है, खासकर “सरोज स्मृति” पढ़ते-याद
कराते हुए। 11 सितम्बर को गजानन माधव मुक्तिबोध की पुण्य-तिथि गुजरी। और कल यानि
13 नवम्बर को उनका जन्मदिन है। आज उन्हें याद करते हुए भी ऐसा ही है। मुझे शमशेर
की मुक्तिबोध पर लिखी गजल का यह शेर आज बेतरह याद आ रहा है –
सहर होगी ये शब
बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए।
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए।
मुक्तिबोध - क्षुब्ध अंधकार की सियाह आग
कुछ फुटकल बातें
(पहली किस्त)
मुक्तिबोध खुद को ‘क्षुब्ध
अंधकार की सियाह आग’ कहते हैं। वे
एक ही साथ मुश्किल कवि हैं और सहज भी,
आत्मग्रस्त-से तनाव भरे और ताकतवर भी?
मुक्तिबोध की मुश्किल और ताकत इस बात में निहित है कि वे अपने समय के रोग
लक्षणों की शिनाख्त करते हैं, आजादी मिलने
के बाद स्थापित हो रहे अपने देश में उस उदार जनतंत्र के रोग लक्षणों की भी। और
पाते हैं कि यह जो उदार जनतंत्र है ‘वह अपनी
सामंती परंपरा से विछिन्न होकर भी,
सामंती-शासकवर्गीय प्रवृत्तियो की तानाशाहियत को अपने खून में लिये हुए है।’ अर्थात् हम जिस उदार जनतंत्र के वासी हैं, उसकी नसों में सामंती खून बह रहा है। उसकी
जनतांत्रिक जड़ें बेहद कमजोर हैं। वह एक अलिखित तानाशाही पर आधारित है। जिस क्षण भी
कोई इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होगा उसे उसका जवाब
तानाशाही दमन से दिया जायेगा।
आज इस उदार जनतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है:
वर्चस्वशाली मौजूदा उदार जनतंत्र को,
‘‘उत्तर-विचारधारात्मक’’ सर्वसहमति को
सिर झुका कर स्वीकार कर लेना। जबकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी का मतलब है:
वर्चस्वशाली सर्वसहमति को सवालों के घेरे में खड़ा करना। इसे चुनौती देने के गंभीर
राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होना। ‘‘वर्तमान समाज
चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’’ इसलिये ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे
ही मठ और गढ़ सब।’’ अन्यथा इस
अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है।
क्रमशः मुक्तिबोध आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के
प्रतिनिधि चरित्र-लक्षणों की गहन जांच करते,
पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोधों व जिस भुतहे वास्तव के रूप में अपने को वह
अभिव्यक्त कर रहा था, उसका
विश्लेषण-संश्लेषण-चित्रण करते हुए,
उसके खिलाफ ‘‘हर संभव तरीके
से’’ युद्ध की घोषण तक
पहुंचते हैं, उन स्थितियों
के खिलाफ जिसमें मनुष्य गुलाम,
लांक्षित, रुद्ध,
तिरष्कृत और घृणित जीव-सा
बना दिया गया है।
मुक्तिबोध के काव्य में समय लहरीला है, उड़ता हुआ। मुक्तिबोध जैसे उस ‘‘ उस त्वरा-लहर का पीछा कर रहे होते हैं।’’ यहां कविता काल-यात्री है। उसका कोई कर्ता
नहीं, पिता नहीं, वह किसी की बेटी नहीं। वह परमस्वाधीन है, विश्वशास्त्री है। आगमिष्यत की गहन-गंभीर
छाया लिए वह जनचरित्री है।
वहां रोजमर्रे के जीवन की घटनाएं हैं, भुतहे वस्तव की तस्वीरें हैं, उससे कहीं अधिक विस्मयकारी, रोमांचक और रहस्यमय और भुतही जितना की अब
तक हम देखते-समझते-जानते रहे हैं। वहां आत्मालोचना के रूप में हमारी अपनी
कमजोरियों-गलतियों की गहरी व तीखी लेकिन आत्मीय भर्त्सना-आलोचना है, जिससे हम बचकर निकल जाने में ही अपनी भलाई
देखते हैं।
वहां देश-देशांतर के अनुभवों से भरी देश-देशांतर को पार करती, हम तक आती ताजी-ताजी हजार-हजार हवाएं हैं, हमसे हमारी कमियों-खूबियों पर बतियाती बहस
करती, भविष्य के नक्शे
सुझाती-बनाती हुई।
वहां गतिमय अनंत संसार है, उसे जानने और उसे संभव संपूर्णता में अभिव्यक्ति करने के
नये-नये गणितिक, वैज्ञानिक
प्रयोग से लेकर प्राविधिक-तकनीकी अनुसंधान हैं, उनकी बाधाएं हैं,
भूलें और मुश्किलें हैं, सफलताएं और
संभावनाएं हैं- (कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहां पर
बार-बार)। और चूंकि यह सब परिवर्तनकारी हैं इसलिए वहां दमनकारी सत्ताएं और उनके
षडयंत्र भी अपने पूरे वजूद में हैं- ‘‘मेरा क्या था
दोष?/ यही कि तुम्हारे मस्तक
की बिजलियां/ अरे, सूरज गुल होने
की प्रक्रिया/ बता दी मैंने/ सूत्रों द्वारा’’
कुल मिला कर वहां एक परिवर्तनकारी यथार्थवादी नई समझ और नया
संघर्ष है, जिसमें आगामी
कई हविष्यों के आसाधारण संकेत हैं - जिससे होता पट परिवर्तन/ यवनिका पतन/ मन में
जग में।
एक वाक्य में वहां हमारे समय के भुतहे, जटिल यथार्थ की जटिल अभिव्यक्ति है और
जटिल (कॉम्प्लेक्स) का अर्थ दुरूह (कॉम्प्लीकेटेड) नहीं होता। मुक्तिबोध की
कविताएं हमारी मित्र कविताएं हैं। मेरे लिए तो गुरु कविताएं भी।
बकौल मुक्तिबोध -‘‘आज की जिंदगी
में वही दृश्य दिखाई देते हैं जो महाभारत काल में थे।.....दोनों पक्षों (यानी
आधुनिक कौरव और पांडव) में आंतरिक उद्देश्यों और सवभावों के भेद के साथ ही साथ एक
बात सामान्य है, और वह यह है
कि समाज की ह्रासकालीन स्थिति और व्यक्तित्व की ह्रास-ग्रस्त मति के दृश्य दोनों
की परिस्थिति बन गए हैं।........ अभी भी बहुत से महापुरुष कौरवों की चाकरी करते
हुए पांडवों से प्रेम करते हैं,
यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु द्रोण,
भीष्म और कर्ण-जैसे प्रचंड व्यक्तित्वों की ऐतिहासिक पराजय जैसी महाभारत काल
में हुई थी, वैसी आज भी
होने वाली है।
अंतर इतना ही है कि इस संघर्ष में (जो आगे चलकर आज नहीं तो
पच्चीस साल बाद तुमुल युद्ध का रूप लेगा) कौन किस स्वभाव-धर्म और समाज-धर्म के
आदर्शों से प्रेरित होकर ऐतिहासिक विकास के क्षेत्र में अपना-अपना रोल अदा करेगा, इसकी प्रारंभिक दृश्यावली अभी से तैयार
है।’’ (प्रगतिशीलता और मानव
सत्य नामक निबंध पेज 78, मुक्तिबोध
रचनावली खण्ड 5)। यह तैयार दृश्यावली देखिए:
भई वाह !! कहां से ये फोटो उतरे / उन महत्-जनों के मुझ पर
छा जाते चेहरे / पीले, भूरे, चौकोर और श्यामल / गठियल दुहरे!! / वे
स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख / अपने झूठे प्रतिबिंम्ब
गिराते हैं।/ लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।/उनके स्वप्नों में घुस कर
मुझे स्वप्न आते। हैं बंधे खड़े,/
ये महत्, बृहत,/ उनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग/
वे इस जमीन में गड़े खड़े/मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल/
तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े/ यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है/रत्नाभ
दीप्ति का है/ आत्मैक ज्योति का है/स्वार्थैक प्रीति का है।.......वे बड़े-बड़े
पर्वत अंधियारे कुंए बन गए/ जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।/ हाय हाय, यह श्याम कथानक है/ आदमी बदल जाने की यह
प्रक्रिया भयानक है।/..............नैतिक शब्दावलि?/ मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मेलन/ तो आत्मा के संगम
का प्रश्न नहीं उठता/ यह है यथार्थ की चित्रावलि।....... वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा
जबरदस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/यह मांस-किराया/कष्ट-रक्त-भाड़ा/ धरती पर रहने
का/......वह उषःकाल का जगन्मनोहर/ हिरन मार आया/ पर ठीक सामने/ दुबला श्यामल
जन-समाज-सम्मर्द देखकर/ एक सौ दस डिग्री/ उसको बुखार आया/ उसकी सारी उंगलियां खून
से रंगी/कपड़ों पर लाल-लाल धब्बे/ उसके बचाव के लिए मुसकरा/ कलाकार आया। चुप रहो
मुझे सब कहने दो/ फिर नहीं मिलेगा वक्त/जमाना और-और नाजुक होता है/ और-और वह
सख्त।/.............उसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/अपने दासों को
उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/मानव मस्तक की राहों में
छांहों के जरिए/मनानुशासन, जीवन-शोषण, समय-निरोधन के/सब कार्यों में लगा दिया है
सभी अनुचरों को।/ .... बेचैन वेदना को/ श्रृण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा
कर/ उनको शून्यों से शून्यों ही में विभाजिता करवा/ चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर/
इस जीवन पर/ वह कौन?/ अरे वह
लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का/ विकराल राष्ट्रपति है!!/ जिसके बंगले की छाया में
तुम बैठो हो।/ हां, यहां, यहां!! (चुप रहो मुझे सब कहने दो, मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, पृष्ठ 389)
जब समस्याएं,
स्थितियां महाभारत जैसी हों तो उसका समाधान भी महाभारत से कम क्यों कर
होनेवाला। फिर तो- ‘‘वह कल होने
वाली घटनाओं की कविता जी में उमगी।’’
उसके बाद नक्सलबाड़ी का विद्रोह, 74 का आंदोलन और आपात्काल तो जैसे
सामाजिक-प्रयोगशाला में मुक्तिबोध की चिंताओं, क्रांति-स्वप्न और खोजे गये सत्ता के मस्तिष्क की बिजली और
सूरज गुल होने के सूत्रों के सत्यापन हों। आज जगह-जगह कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़-झारखंड में एएफएसपीए, ऑपरेशन ग्रीनहंट और देश भर में भी काले
कानूनों का आपात्काल-सरीखा जाल क्या जनांदोलनों के दमन निमित्त लगाये जा रहे या एक
दिन पूरे देश में ही मार्शल लॉ लगा दिये जाने के खंड-चित्र जैसे नहीं हैं?
मुक्तिबोध - कुछ फुटकल बातें, कुछ प्रश्न
(दूसरी किस्त)
‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ (त्याग के साथ
उपभोग करो) के उपदेश से लेकर ट्रस्टीशिप तक हृदय परिवर्तन के सिद्धांत या समझ से
जुड़े रहे हैं -कि धन से जुड़े मन को बदला जा सकता है। पर यह कहते हुए कि -‘‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी
से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता...’’ मुक्तिबोध उस गांधी को भी
वैचारिक-राजनीतिक धरातल पर खारिज करते हैं, जिनके अन्य गुणों
को वे मानते और महत्व देते हैं। वे शायद ऐसा इसलिये करते हैं कि
आर्थिक-राजनीतिक-सांस्थानिक एक शब्द में ठोस भैतिक समस्याओं का हल नैतिक-भावनात्मक
स्तर पर नहीं दिया जा सकता। इसलिये और भी कि उन्हें गांधी से ही वह बच्चा मिलता है,
जिसे उन्हें ‘संभालना व सुरक्षित रखना’
है। इस ‘भार का गंभीर अनुभव’ मुक्तिबोध को है और शब्दों की उस गुरुता का भी, जो
कोई और नहीं गांधी की वह मूर्ति ही कहती है - ‘‘...भाग जा,
हट जा/ हम हैं गुजर गये जमाने के चेहरे/ आगे तू बढ़ जा।’’ कविता की इन्हीं पंक्तियों के आगे की पंक्तियों में जब वे कहते हैं कि - ‘‘स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/ छल नहीं सकता मुक्ति के मन को/ जन को’’
तब ऐसा कहते हुए वे व्यक्ति स्वातंत्र्य का नारा उछालने वाले अपने
उन समकालीनों को ही निशाने में नहीं ले रहे बल्कि उस पूंजीतंत्र मात्र को निशाना
बनाते हैं जो व्यक्ति स्वातंत्र्य का झंडा लेकर आया लेकिन जिसकी स्वतंत्रता ‘इत्यादि जन’(मुक्तिबोध का शब्द) की परतंत्रता बन गई।
एक और स्तर पर मुक्तिबोध ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा
गांधी से लेकर जयशंकर प्रसाद कि आलोचना की है वह है उन लोगों के द्वारा साभ्यतिक
प्रश्नों-समस्याओं, नवीन भारतीय राज-समाज को अ-यंत्र युग,
ग्राम-समाज, ग्राम-स्वराज्य(आज का पंचायती
राज) आदि के आधारों और वर्ग-संघर्ष रहित वर्ग-सहयोग, वर्ग-समन्वय
और शांति के रास्ते से बनाने के विचार की।
- ‘‘सुकोमल काल्पनिक तल पर/ नहीं है द्वन्द्व
का उत्तर/ तुम्हारी स्वप्न वीथी कर सकेगी क्या......।’’ मैं
इस सबके विस्तार में यहां नहीं जाना चाहता सिर्फ एक सवाल कि तो क्या मुक्तिबोध ऐसा
इसलिये कहते-करते हैं कि वे मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवाद ऐसा ही मानता और कहता
है? या इसे उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते उसकी रोशनी में जीवन-जगत
की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था?
उनकी कविता की बेहतर समझ के खयाल से ही नहीं सामने मौजूद आज
के सवालों के हल की ओर बढ़ने के लिये भी इन सवालों की गहराई में जाना जरूरी लगता
है। इसमें आपकी सहायता कहिये या साझेदारी बेहद जरूरी है, इसके
बगैर गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी, चाहे आप इस पूरी बहस को खारिज कर
देने लायक ही क्यों न मानते हों।
(तीसरी किस्त)
अंधकार-शास्त्र बनाम ज्योतिःशास्त्र
सोवियत संघ के पतन के बाद तो जैसे मार्क्सवाद-समाजवाद की
मृत्यु का सोहर गाया जाने लगा। एकमात्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में
पूंजीवाद के विजय के साथ इतिहास के अंत की घोषणा की जा चुकी थी। पूंजीवादी
उत्पादन-अतिरेक के संकट की मार्क्स के भविष्यवाणी दफना देने का फतवा जारी कर दिया
गया था। पूंजीवाद हल न किये जा सकने वाले अंतरविरोधों से ग्रस्त है और उसके नाश के
बीज उसके अंदर ही हैं, ऐसा अब भी माननेवालों को पागल-सनकी करार
दिया जा रहा था। लेकिन पिछले 20 सालों में इतिहास चक्र 180 डिग्री घूम गया है।
पूंजीवाद भयावह संकट में है। और उससे नाभिनालबद्ध विचारक और अर्थशास्त्री, मार्क्सवाद के घोर-विरोधी भी अलग धुन बजाने लगे हैं। अचानक मार्क्सवाद को
बड़ी गंभीरता से लिया जाने लगा है। लेकिन इसके साथ ही गलत और तोड़ी-मरोड़ी सूचनाओं,
तथ्यों, आंकड़ों के अंबार और ग्लैमर के ताजा
संसार के जरिये हमारे सामने में एक ऐसा नया चमचमाता अधेरा रचा जा रहा है कि हमारी
आंखें और दिल-दिमाग चौंधियाने लग रहे हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के, अपने समय में रचे जा रहे अंधकार-शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिःशास्त्र रचने
के युद्ध को समझना बेहद जरूरी है ताकि हम उनके प्रयास को नये स्तर पर ले जा सकें।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद शुरू हुए शीत-युद्ध
के दौर में क्षयग्रस्त पूंजीवाद ने अपने बचाव में तैयार किये जा रहे
वैचारिकी-सैद्धांतिकी का अंधकार-शास्त्र रचना शुरू किया। साहित्य-संस्कृति के
क्षेत्र में यह और कारगर तौर पर किया गया। फोरम फार कल्चरल फ्रीडम नाम से इसे
बाकायदा संगठित अभियान का रूप दिया गया। उस अंधकार-शास्त्र का हमारे अपने देश भारत
के सामंती जकड़नों से ग्रस्त रुग्ण पूंजीवाद ने लपक कर स्वागत किया - ‘‘साम्राज्यवादियों
के/ पैसे की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लंदन का
उपनगर/ बनाने पर तुली है!!/ भारतीय धनतंत्री/ जनतंत्री बुद्धिवादी/ स्वेच्छा से
उसी का ही कुली है!!’’(जमाने का चेहरा) अपने एक आलोचनात्मक
निबंध में उन्होंने लिखा कि अपने देश के बौद्धिकों की स्थिति देखता हूं तो लगता है
जैसे हमारा देश अब भी उपनिवेश है।’ साहित्य के क्षेत्र में
अपने यहां भी संगठन बनाकर नये-नये जन-विरोध, रचना-विरोधी
सिद्धांतों-विचारों को फैलाया गया। इस सब पर विस्तार में बात करने की यह जगह नहीं
है और कि यह सब इतिहास आप जानते हैं।
नयी कविता की अन्य बहुतेरी विशेषताओं-संभावनाओं-सीमाओं का
विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले (1) ‘नई
कविता के कलेवर पर शीत-युद्ध की छाप है। और (2) कि नई कविता के क्षेत्र में निम्न
मध्यवर्ग के रचनाकारों की भाव-दशाएं इन प्रभावों के बावजूद उनसे भिन्न प्रगतिशील
दिशा में उन्मुख हैं, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिये। अपने समय
में सामान्य जन-जीवन को, कवि-साहित्यकार जिसका अंग है,
देखते हुए मुक्तिबोध ने लिखा - ‘‘आज की कविता
पुराने काव्य-युगों (इसके साथ इसे आज की जीवन पुराने युगों भी पढ़ सकते हैं) से
कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के
साथ द्वंद्व-स्थिति में प्रस्तुत है। इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है। परिस्थिति
की पेचीदगी से बाहर न निकल सकने की हालत में मन जिस प्रकार अंतर्मुख होकर निपीड़ित
हो उठता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज की कविता
में घिराव का वातावरण भी है।’’
अतएव,....यह आग्रह दुर्निवार हो उठता है कि
कवि-हृदय द्वंद्वों का भी अध्ययन करें, अर्थात् वास्तविकता
में बौद्धिक दृष्टि द्वारा भी अंतःप्रवेश करें, और ऐसी
विश्व-दृष्टि का विकास करें जिससे व्यापक जीवन की-जगत की व्याख्या हो सके, तथा अंतर्जीवन के भीतर के आंदोलन, आरपार फैली हुई
वास्तविकता के संदर्भ से व्याख्यात, विश्लेषित और मूल्यांकित
हों।’’(निबंध वस्तु और रूप: एक ) यह निबंध 1961 में लिखा गया
था लेकिन मुक्तिबोध के भीतर यह प्रवृत्ति बहुत पहले से काम कर रही थी - ‘‘दार्शनिक प्रवृत्ति - जीवन और जगत के द्वंद्व - जीवन के आंतरिक द्वंद्व -
इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित
तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की, दुर्दम
प्यास मन में हमेंशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला
सबसे सशक्त कारण यही प्रवृत्ति रही।’’
इससे इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को यूं
ही, किसी फैसन के चलते नहीं अपनाया। उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते, उसकी
रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए
उपलब्ध किया था। और हम-आप सबसे प्रश्न किया था - ‘‘कुहरिल गत
युगों के अपरिभाषित/ सिंधु में डूबी/ परस्पर, जो कि
मानव-पुण्य धारा है,/ उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई
हूं,/ बशर्ते तय करो,/ किस ओर हो तुम,
अब/ सुनहले उर्ध्व-आसन के/ निपीड़िक पक्ष में, अथवा/
कहीं उससे लुटी-टूटी/ अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/ कहां
हो तुम?’’
और खुद के और हम सबके लिये जीवन के समूचे कर्म की भूमिका तय
की - ‘‘हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो ब्रह्मांड समझे त्रस्त जीवन
को............/हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो गंभीर ज्येतिःशास्त्र रच डाले/ नया
दिक्काल-थियोरम बन, प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण/ मन का/ कि जो
गहरी करे व्याख्या/ अनाख्या वास्तविकताओं,/ जगत की
प्रक्रियाओं की/........कि पूरा सत्य/ जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में/ सहज ही
दौड़ता आये-/ स्मरण में आय/ मार्मिक चोट के गंभीर दोहे-सा/ कि भीतर से सहारा दे/
बना दे प्राण लोहे सा/’’(नक्षत्र खंड)
अंधकार-शास्त्र के खिलाफ ज्योतिःशास्त्र रचने का काम
मुक्तिबोध ने अपने समूचे जीवन और रचना कर्म में कियां और इसे किया पूरी तरह एक
तल्लीन-तठस्थता के साथ। इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्सवाद को समृद्ध व अद्यतन
करने का काम किया। उनके समूचे रचनाकर्म के भीतर से इस ज्योतिःशास्त्र के सूत्रों
को इकठ्ठा करने और अद्यतन मार्क्सवाद को समझने और उपलब्ध करने का काम, जिसकी
जरूरत हमें आज और ज्यादा है, तो छोड़िये हमारे प्रकांड
आलोचकों ने मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय, सिजोफ्रेनिक, भाववादी, फ्रायड और मार्क्स का घालमेल करनेवाला
बताकर खारिज करने, या यह नही ंतो फिर उसे अस्तीत्ववादी
मुहावरे में फिट कर अस्मिता की तलाश करनेवाले के रूप में पेश किया। यह काम अब भी
शेष है। इसे कौन करेगा? यह प्रश्न हमारे-आपके सामने है।
नोट: इस विषय से संबंधित कुछ और बातें, मसलन
उजाले और अंधेरे के भयानक द्वंद्व में रह कर उस जिंदगी ने यह काम किस तरह किया और
कि हमारे प्रकांड आलोचकों ने उसे किस तरह देखा, आगे करेंगे
जो यहीं करना जरूरी लग रहा था।