Thursday 16 January 2014

सही थे मार्क्स



सही थे मार्क्स
एलन वुड्स (लंदन 16 नवम्बर 2011)
(बेशक, लंबा लेकिन एक जरूरी पठनीय आलेख। समकालीन जनमत जनवरी 2014 से साभार)

पूँजीवाद के संकट के साथ बुर्जुआ विचार का भी संकट जुड़ा हुआ है, दर्शन, अर्थशास्त्र्ा, नैतिकता- सभी उथल-पुथल के दौर में हैं। उस आशावादिता, जिसने बड़े विश्वास से कहा था कि पूँजीवाद ने अपने सारे संकटों से पार पा लिया है, की जगह अब सर्वग्रासी निराशा के अंध्ोरे ने ल्ो ली है। बहुत दिन नहीं बीते जब गार्डन ब्राउन ने बड़े शान से कहा था उभार और मंदी के चक्रों का दौर बीत चुका है।’ 2008 के भयावह संकट ने उसे अपने बड़बोल्ोपन पर शर्मसार होने को मजबूर कर दिया।
यूरो संकट का वर्तमान दौर दिखला चुका है कि बुर्जुआ के पास ग्रीस और इटली की समस्याओं के निदान का कोई उपाय नहीं है जिसके चलते न सिर्फ यूरोपी साझा मुद्रा बल्कि खुद यूरोपी यूनियन ई.यू. का भविष्य भी खतरे में हैं। यह एक नये विश्वव्यापी आर्थिक ध्वंस का ऐसा उत्प्रेरक है जिसकी विभीषिका 2008 से कहीं भयावह होगी।
वर्तमान संकट की खासियत यह थी कि इसका हो सकना मुमकिन ही नहीं माना जा रहा था। अभी हाल तक ज्यादातर बुर्जुआ अर्थशास्त्र्ाी यही मान रहे थ्ो कि बाजार, बिना किसी हस्तक्ष्ोप के, खुदबखुद सारी समस्याओं को हल कर ल्ोने और आपूर्ति व भोग का जादुई संतुलन बनाये रखने में सक्षम है, जिसके चलते अब कभी 1929 के महाध्वंस और महामंदी की पुनरावृत्ति हो ही नहीं सकती (सुदक्ष-सक्षम बाजार अवधारणा)।
उत्पादन अतिरेक के संकट की मार्क्स की भविष्यवाणी इतिहास के कचरेदान में डाल दी गयी थी। जो अभी भी मार्क्स के इस विचार के हिमायती थ्ो कि पूंजीवादी व्यवस्था हल न किये जा सकने वाल्ो अंतर्विरोधों से ग्रस्त है और उसमें खुद अपने विनाश के बीज अंतर्निहित है, पागल-सनकियो की तरह देख्ो जा रहे थ्ो। क्या सोवियत यूनियन का पतन कम्युनिज्म की विफलता को अंतिम रूप से साबित नहीं कर चुका था? एकमात्र्ा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद की विजय के साथ क्या इतिहास का अन्त नहीं हो चुका था?
यह सब तब की बातें थी। मगर पिछल्ो बीस साल के काल खण्ड में (मानव समाज के इतिहास की दृष्टि  से यह कोई लंबा समय नही है) इतिहास यहां 1800 घूम चुका है। अब मार्क्स और मार्क्सवाद के भूतपूर्व आलोचक एक अलग धुन बजा रहे हैं। अचानक कार्लमार्क्स के आर्थिक सिद्धान्तों को बड़ी गंभीरता से लिया जाने लगा है। जर्मनी में दास केपिटलअब बेस्ट सेलर बन चुकी है। भारी संख्या में अर्थशास्त्र्ाी जो कुछ गलत घट गया उसकी व्याख्या के लिये इसके पन्ने खंगाल रहे हैं।..........................
अब अर्थशास्त्र्ाी एक नये महाविनाश की भविष्यवाणी कर रहे हैं; मुद्राओं और सरकारों का पतन जो वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के समूचे ताने-बाने पर संकट बन सकता है। घाटे पर अंकुश लगाने की जरुरत पर राजनीतिज्ञ चाहे जो हाय-तौबा मचायें, जिस हद तक दुनिया कर्ज में डूब चुकी है उसे पाटना संभव नहीं। ग्रीस इसका ज्वलंत उदाहरण है। भविष्य और गहरे संकटों, गिरते जीवन निर्वाह स्तरो, तकलीफ देह समायोजनों और बहुसंख्या की बढ़ती दरिद्रता का है। यह और बड़े पैमाने की उथल-पुथल और वर्ग संघर्ष का तैयार नुस्खा है। यह समूची दुनिया के पैमाने पर पूँजीवाद का व्यवस्थाजन्य संकट है।...........................
अर्थशास्त्र्ाी, मार्क्सवादियों पर दिवास्वप्न देखने का, युटोपियन होने का इल्जाम लगाते हैं। मि. मैग्नस पूँजीपतियों से बस इतना भर चाहते हैं कि वे पूँजीपतियों की तरह अपना व्यवहार थोड़ा कम करके संत फ्रांसिस की तरह बर्ताव करें। यह तो आदमखोर बाघ में मांस छोड़ कर सलाद खाने को कहना हुआ। और हम जानते हैं इस खुशनुमा प्रस्ताव पर बाघ की क्या प्रतिक्रिया होगी। कहना न होगा कि इस कीन्सियन मूढ़ता से मार्क्स के विचारों का कुछ ल्ोना-देना नहीं है।.......................
हमारे सामने दर पेश समस्याओं का समाधान पहल्ो से वजूद में है। पिछल्ो दो सौ सालों में पूँजीवाद ने विशालकाय उत्पादक शक्ति बना ली है। मगर यह इसकी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करने में अक्षम है। वर्तमान संकट सिर्फ इस तथ्य की अभिव्यक्ति है कि उद्योग, विज्ञान और तकनीक का इस सीमा तक विकास हो चुका है कि इन्हें अब निजी मालिकाने और राष्ट्र-राज्य की संकुचित सीमाओं में बांध्ो रख पाना संभव नहीं रह गया है।
बीस साल पहल्ो फ्रांसिस फुकुयामा ने इतिहास के अंत का राग अलापा था। मगर इतिहास का अंत हुआ नहीं। बल्कि, वास्तव में, हमारी प्रजाति का सच्चा इतिहास तब शुरु होगा जब हम वर्ग विभाजित समाज की गुलामी को खत्म करके अपने जीवन और नियति पर खुद का नियंत्र्ाण करना शुरु कर सकेंगे। यही दरअसल समाजवाद हैः जरुरतों की मजबूरी के साम्राज्य से आजादी के साम्राज्य की ओर छलांग।
वर्तमान संकट इन दमघोंटू सीमाओं के खिलाफ उत्पादक शक्तियों के विद्रोह की अभिव्यक्ति भर है। एक बार उद्योग, कृषि, विज्ञान और तकनीक पूँजीवाद की दमघोंटू सीमाओं से आजाद हो जायें, उत्पादक शक्तियाँ बिना किसी कठिनाई के तमाम मानवीय अपेक्षाओं-जरुरतों को पूरा करने में सक्षम हो जायेंगी।
इतिहास में पहली बार, मानवता अपनी संपूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिये स्वतंत्र्ा होगी। काम के घंटों में आम तौर पर कमी एक सच्ची सांस्कृतिक क्रांति के लिये भौतिक आधार प्रदान करेगी। संस्कृति, कला, संगीत, साहित्य और विज्ञान अकल्पनीय ऊँचाइयों की उड़ान भरेंगे।

Friday 10 January 2014

भारत का विचारधारा मुक्त राजनीतिज्ञ



भारत का विचारधारा मुक्त राजनीतिज्ञ
थामस क्राउले
अरविंद केजरीवाल समाजवादी नहीं हैं। वह सबसे पहले इस बात को कहते हैं। साक्षात्कार-दर-साक्षात्कार भारत में राजनीति के उभरते सितारे केजरीवाल खुद को सचेतन रूप से किसी भी वामपंथी धारा से दूर रखते जा रहे हैं।
बावजूद इसके वेबसाइट अरविन्द केजरीवाल.नेट.इन (जो केजरीवाल द्वारा नहीं बल्कि उनके एक प्रशंसक द्वारा चलाई जा रही है) बड़े गर्व के साथ केजरीवाल को एक लोकप्रिय समाजवादीघोषित करती है जबकि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का दिल्ली मेनिफेस्टो कत्तई क्रांतिकारी नहीं है, मगर यह वामोन्मुख प्रस्तावों से भरा पड़ा है: दिल्ली में पानी के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष, ज्यादा सरकारी स्कूल बनवाना और निजी स्कूलों की फीस पर लगाम, बिजली क्षेत्र में एकाधिकारी पूँजी के वर्चस्व को तोड़ना, जहाँ तक मुमकिन हो ठेका श्रम की जगह नियमित श्रम की व्यवस्था करना और असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों का सशक्तीकरण करना।
यह मेनिफेस्टो दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिये था जो अपने पाँव जमाती आम आदमी पार्टी (आप) की पहली बड़ी परीक्षा थी। 8 दिसम्बर को घोषित चुनाव परिणामों ने राजनीतिक हलके को सकते में डाल दिया हालाँकि पार्टी साथियों के लिये ये परिणाम अप्रत्याशित नहीं थे। ऐसी नवजात पार्टी ने अपना दमदार प्रदर्शन दिखाते हुए दिल्ली विधान सभा की 70 में से 28 सीटें जीत ली।
दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी - वंशवादी, बिखरती कांग्रेस पर सबसे ज्यादा मार पड़ी जिसे सिर्फ आठ सीटें मिल पायीं जो बढ़ती खाद्यान्न कीमतों और भयावह राजनीतिक स्कैंडलों की भरमार के प्रति वोटरों के गुस्से का नतीजा था। कांग्रेस की चिर विरोधी, व्यापारी वर्ग हितैशी, उच्च जातीय वर्चस्व वाली हिन्दू फंडामेंटलिस्ट भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जनता की सरकार विरोधी लहर का सबसे ज्यादा फायदा लूटते हुए 31 सीटें हासिल कीं।
मगर सबसे जबर्दस्त जीत खुद केजरीवाल की थी जिन्होंने पिछले पंद्रह सालों से दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को भारी मात दी। दीक्षित और केजरीवाल नयी दिल्ली से लड़ रहे थे जो देश के चोटी के राजनीतिज्ञों का गढ़ है। लड़ाई का एकतरफा नतीजा सकते में डाल देने वाला था: केजरीवाल 30 फीसदी से ज्यादा अंतर से जीत गये। चुनाव बाद के विश्षलेणों से पता चलता है कि केजरीवाल को सबसे ज्यादा समर्थन इलाके की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों से मिला जिनके कामगार बाशिंदों में से काफी सारे उस सेवा क्षेत्र में काम करते हैं जो राजनीतिज्ञों की आलीशान जीवनशैली का पोषण करता है और जो कांग्रेस के खोखले वायदों को अच्छी तरह पहचानते थे
समर्थन के इस आधार के बावजूद, केजरीवाल ने वाम तमगे से क्यों परहेज किया? कम से कम भारत में, अमेरिका से अलग, ‘कम्युनिस्टऔर सोशलिस्टशब्द राजनीतिक विरोधियों पर कीचड़ उछालने के विशेषण भर नहीं हैं। मगर शायद भारत के राजनीतिक हलके में वामएक गंदा शब्द बनता जा रहा है बावजूद इसके कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने दो महत्वपूर्ण राज्यों की राजनीति पर दखल बनाये रखी है और अन्य राज्यो में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है, नव उदारवाद के बीस वर्षों के बाद इनका बहुत ही कम राष्ट्रव्यापी प्रभाव दिखता है। देश की सबसे बड़ी वाम पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) केवल नाम की कम्युनिस्ट है- संसदीय राजनीति की मांगों और जकड़बंदियों ने इसकी किसी भी परिवर्तनकारी क्षमता को न जाने कब का सोख लिया है।
भारत में, जबकि मुख्य धारावाम कुल मिला कर ढह चला है, मध्य भारत में माओवादी ग्रामीण विद्रोह अभी घिसट रहा है। भारत के वाम खेमे में इस छापामार युद्ध रणनीति की प्रभावोत्पादकता और परिणामों को लेकर तीखी बहस है मगर सत्ताधारी वर्ग किसी भी तरह के विरोध पर उसके खिलाफ राज्य की पूरी ताकत से टूट पड़ने के लिये माओवादीका ठप्पा चस्पा करने में मगन है। माओवादियों और संसदवादियों के दो ध्रुवों के बीच बहुतेरे सक्रिय और उम्मीद जगाने वाले वाम आंदोलन मौजूद हैं मगर राष्ट्र के राजनीतिक परिदृष्य और सोच में इनका कोई खास दखल नहीं है।
शायद यह सीपीआइ (एम) की असफलतायें या फिर खतरनाक माओवादियों के निहितार्थ हैं जिनके चलते केजरीवाल ने खुद को वाम के साथ किसी भी रिश्ते से दूर रखा है। अपना राजनीतिक कैरियर बनाने की जद्दोजहद में जुटे आदमी के लिये यह एक समझदार कार्यनीति हो सकती है। अपने जेन्डर्डनाम के बावजूद केजरीवाल की आम आदमी की पार्टी उस जनता की आवाज होने का दावा करती है जो भ्रष्टाचार और राज्य-उद्योग गठजोड़ की शिकार है। साल 2011 में उभरे भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों के मुख्य प्रड़ेताओं में से एक, केजरीवाल ने असंगठित ढ़ीले-ढ़ाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को एक संगठित राजनीतिक ताकत में बदलने के लिये उस आंदोलन के नेता से किनारा कर लिया। केजरीवाल का मंच सीधे जनतंत्र का साथ देने और चोटी के राजनीतिज्ञों की मिली भगत से फलती-फूलती बड़े कारपोरेशनों की ताकत से लड़ने का आह्वान करता है।
मगर बारीकी से जाँच करने पर, केजरीवाल के शब्दाडंबरों से पता चलता है कि वह वाम ठप्पे को नकारने का स्वांग करते हुए कोई वाम पक्षीय आंदोलन खड़ा नहीं करने जा रहे हैं। उनका लोक लुभावनवाद सर्व आमंत्रणकारी है जो व्यापक जन असंतोष का फायदा उठाते हुए सभी आगंतुकों का स्वागत करता है। व्यापारिक वर्ग में पहुँच बनाने की गरज से वह उद्योग और व्यापार के कसीदे पढ़ते हुए जोर देते है कि ‘99 प्रतिशतव्यापारी वर्ग भ्रष्टाचार का शिकार है न कि भ्रष्टाचार का जनक। हालाँकि वह कुछेक निजीकरण मामलों या कारेपोरेट भ्रष्टाचारों का विरोध करते हैं, मगर वह भारत की समस्याओं की जड़ देश के राजनीतिक वर्ग के भ्रष्टाचार में देखते है और इस तरह आर्थिक और राजनीतिक ताकतों के उस व्यापक सर्वपक्षी जाल को नजरंदाज कर देते हैं जो आम आदमीको जकड़े हुए है।
आपके प्रमुख विचारकों में से एक योगेन्द्र यादव, जो समाजवादी हैं, ‘आपकी नीतियों में ज्यादा आधारभूत गहराई लाने की भरसक कोशिश करते दिखते हैं, जैसे वे जोर देते हैं कि भ्रष्टाचारदरअसल देश की गहरी आधारभूत बीमारियों का लक्षण मात्र है। मगर आपके अंदर भ्रष्टाचार का शब्दजाप ज्यादातर एक मध्यवर्गीय नैतिकता पर टिका दिखता है- इस सुझाव के साथ कि कड़ाई से पालन और नैतिक आत्मानुशासन के जरिये समस्या से निजात पाई जा सकती है।
इसलिये हमें केजरीवाल की बात माननी चाहिये जब वह कहते हैं कि वह वामपंथी नहीं हैं। मगर फिर वह यह भी जोर देते हैं कि उनका वैचारिक दर्शन न तो दक्षिण और न ही मध्य में निहित है। इस मामले में केजरीवाल की बोली 2008 के बराक ओबामा की याद दिलाती है। (दरअसल उन्होंने ओबामा को अपनी प्रेरणा बताया है और इनके अभियान को सोशल मीडिया के कुशल इस्तेमाल, व्यापक चंदाउगाही और प्रतिबद्ध ग्रासरुट कार्यकर्ताओं का फायदा मिला है)। वह आशा और परिवर्तन से लबरेज हैं, निदानों पर, न कि घिसी-पिटी विचारधाराओं पर जोर के साथ राजनीतिक परिदृश्य की गंदगी बुहारने को तैयार। ओबामा से अलग (भारत की विद्यमान राजनीतिक परिदृष्य में यह बुद्धिमानी है) केजरीवाल नियोजन रेखा के पार जा कर अपने विरोधियों के साथ काम करने का वादा नहीं करते। वह ज्यादा झगड़ालू लगते हैं और कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ आरोप उछालने में मजा लेते हैं। फिर भी उनका प्रशासन को लेकर रवैया ओबामा सरीखा ज्यादा लगता है - वह एक उत्तर-वैचारिक, परिणामवादी, पारदर्शी प्रशासन के नये युग का आगाज करना चाहते हैं।
निश्चित रुप से उत्तर-वैचारिकता की अवधारणा आधारभूत रूप से निर्वात है। आपका कहना है कि वह किसी भी कठोर, अविचलनशील सिद्धांत की विरोधी है, मगर यह महज आम सोच, कॉमन सेंस है - एक ऐसा खोखला नीरस शब्दाडंबर जिसके साथ लगभग किसी का भी मतविरोध नहीं हो सकता।
मगर जहाँ पार्टी का उत्तर-वैचारिकरुख भाषाई आधार पर अर्थहीन है, वहीं यह निश्चित रुप से राजनीतिक दृष्टि से फायदेमंद है। तकनीकी दक्षता और तर्कशील बेहतर प्रशासन का आडम्बर खड़ा करके उत्तर वैचारिकराजनीति (अपने संबद्ध मुहावरे इतिहास के अंतके साथ) अपनी खुद की विचारधारा के बतौर इस बात को जताने की कोशिश के लिये इस्तेमाल की गयी है कि वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर सवाल उठाने की न तो जरुरत हैं न ही संभावना, उसे पुनर्गठित करने की कोशिश का ख्याल तो छोड़ ही दीजिये। हमने देखा है कि उत्तर-राजनीतिकउम्मीद और परिवर्तन की विचारधारा ने अमेरिका में क्या गुल खिलाये हैं: ओबामा की उत्तर-राजनीतिकअवधारणा हकीकत में स्वास्थ्य, शिक्षा और वित्त जैसे बुनियादी क्षेत्रों में भी मुक्त व्यापार की मजबूत स्वीकारोक्ति है।
मगर ओबामा-केजरीवाल की तुलना यहीं तक जा सकती है। ओबामा से अलग केजरीवाल अपने देश की दोनों वर्चस्ववादी पार्टियों के बाहर के दायरे से आते हैं और भारत की संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में इसकी गुंजाइश है कि तीसरी पार्टियाँ क्षेत्रिय और राष्ट्रीय राजनीति के दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण दखल दे सकें। दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप’- की सफलता ने देश की राजनीतिक मुख्यधारा को जैसी चुनौती दी है वैसा ओबामा की जीत उनके देश में शायद ही कर सकती थी। कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों ने, संकोच से ही सही, यह माना है कि उन्हें आपसे काफी कुछ सीखना होगा और टिप्पणीकारों ने चुनावपूर्व नकद और शराब, जैसे प्रलोभन देने से इन्कार करने और ज्यादातर आइडेन्टिटी पालिटिक्ससे आपके परहेज करने का उसके पारम्परिक राजनीति के मानदण्डों को उन्नत करने की कोशिशों के रूप में बढ़-चढ़ कर बखान किया है। पार्टी आदर्शवाद और एक बेहतर राजनीतिक व्यवस्था देने की ईमानदार आकांक्षा का इस्तेमाल करते हुए यह दिखाने में कामयाब रही है कि इन निःस्वार्थ भावनाओं को बेहतरीन चुनावी परिणामों में बदला जा सकता है। मगर इस आवेग के तेजी से दक्षिणपंथी रास्ता पकड़ लेने की प्रबल संभावना है अगर पार्टी अपनी उत्तर-वैचारिकअवधारणा और रवैये पर टिकी रहती है।
आपदो राहे पर है। पार्टी का प्रारंभिक समर्थन आधार ज्यादातर मध्य वर्गोन्मुख रहा है और साथ ही इसे विदेशों में रह रहे अच्छे खाते-पीते भारतीय का समर्थन भी हासिल रहा है। मगर हाल में इसने श्रमिक वर्ग और निम्न मध्यम वर्गीय समर्थन की उल्लेखनीय गोलबंदी की है, जिसके लिये इसने सरकारी भ्रष्टाचार के अपने संकीर्ण केंद्रीकरण को कारपोरेट भ्रष्टाचार, सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण, और ठेका श्रम जैसे व्यापक मुद्दों की ओर विस्तारित किया है।
पार्टी की निगाह अपनी राष्ट्रव्यापी प्रभावोत्पादकता की तरफ है। अब तक यह सबके लिये सब कुछदिखते हुए आगे बढ़ने में सफल रही है जिसके लिये उसने कुल मिलाकर लुभावने उपायों पर जोर दिया है और इस क्रम में भारतीय समाज के बहुतेरे तनावों और विरोधों को नजरंदाज किया है। निश्चित रुप से यह संकीर्ण-सनकी आइडेन्टिटी पालिटिक्ससे बेहतर है। मगर भारत के असली अंतर्विरोधों को, जिनमें नव उदार युग के तीखे होते जाते वर्ग संघर्ष शामिल हैं, अनंतकाल तक कालीन के नीचे दबा कर नहीं रखा जा सकता।इसके लिये चाहे जितनी उत्तर-वैचारिकताकी ढ़ोल पीटी जाये।