Wednesday 26 November 2014

संस्कृत कौन देस को बानी /उर्फ/ भाषा में समाया ब्राह्मणवाद



कबीर ने कहा ‘संसकीरत है कूप जल भाखा बहता नीर।‘ अर्थात संस्कृत जीवित आदमियों की भाषा नहीं है। तुलसी इस झगड़े में पड़ना ही नहीं चाहे- ‘का भाखा का संसकिरत प्रेम चाहिए सांच।‘ अर्थात बीच का रास्ता निकाला और सरक लिए। लिखा अवधी में, मंगलाचरण गाया संसकीरत में। हमारी सरकार ने इस बाबत सबसे न्यारा रास्ता अपनाया। जिन 15 जीवित भाषाओं को संवैधनिक दर्जा दिया उनमें से एक संस्कृत भी है। इसका तर्क क्या है अपन को यह आज तलक समझ न आया। चलो माना कि यह एक पुरानी शास्त्रीय भाषा है, इसमें हमारी प्राचीन संस्कृति की बेशकीमती धरोहर दबा के रखी हुई है, इसे जाने बगैर हम अपनी जड़ों से कट जाएंगे। फिर तो इसे ढंग से पढ़ने-पढ़ाने का इंतजाम करने से काम नहीं चलेगा? जड़ों से जुड़े रहने के लिए मरों से जुड़े रहना भर ही नहीं, उन्हें जीवित मान कर चलना भी जरूरी बना दिया जाएगा?

लीजिए जनाब, अब संस्कृत में समाचार सुनिए। सुनिए अब आकाशवाणी से देववाणी में समाचार। यह तो अपन को किसी कदर पल्ले नहीं पड़ता कि इसकी क्या जरूरत? वे कौन लोग हैं भई जिनको संस्कृत में खबरें सुनाई जा रही हैं। शायद पितरों को। यहीं आकर निर्मल वर्मा का कहा साफ समझ आता है कि ‘अतीत हमारे यहां व्यतीत नहीं, वह हमेशा जीवित वर्तमान होता है।’

अपन बचपन से यही सुनते आए हैं कि संस्कृत को किसी ने नहीं जना। यह देवताओं की वाणी है। जिस पुस्तक से संस्कृत का परिचय कराया गया उस पाठ्य पुस्तक का भी नाम था देववाणी परिचायिका। संस्कृत सीधे देवताओं के मुंह से निकली है जैसे ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण। इसलिए इसे किसी ने नहीं जना। बल्कि यही सभी भाषाओं की जननी है। यह जुमला इतना सार्वभौमिक बना दिया गया है कि इसको लेकर दिमाग में कोई और ख्याल ही नहीं आता। किशोरी दास बाजपेयी हिंदी के परम भाषाविद कहते-कहते मर गए लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी कि भैया हिंदी संस्कृत से नहीं निकली है। उसका स्वतंत्र, भिन्न आधर है। नहीं तो संस्कृत में रामः गच्छति और सीता गच्छति अर्थात राम (पुलिंग) और सीता (स्त्रिलिंग) दोनों के लिए गच्छति है, तो वह किस व्याकरण के किस नियम से हिंदी में ‘राम जाता है’ और ‘सीता जाती है’ हो जाता है- यह कोई हमें बताए। उनको तो किसी ने नहीं बताया। हां उनके जीवन के अंतिम दिनों में एक बार इलाहाबाद में मैंने उनसे यह सवाल उठाया तो बकौल किशोरी दास बाजपेयी जब कभी अपनी देशी सरकार (राष्ट्रीय सरकार) आएगी तो उसे हमारी बात जरूर समझ में आएगी।‘ तो क्या यह सरकार विदेशी है? रंग-रूप से भले न सही ढब-ढंग से तो विदेशी ही लगती है। ज्यादा नहीं तो कम से कम भारोपीय के वजन पर यूरोइंडियन तो लगती ही है, आपको शक है?

भक्ति आंदोलन ने भारतीय भाषाओं, बोलियों को फूलने-फैलने का अवसर मुहैया किया। संस्कृत के एकछत्र प्रभाव को तोड़ा, उसे कूप जल घोषित किया। यह कुआं कहिए तो ‘ठाकुर का कुआं’ रहा जहां से दूसरा कोई पानी नहीं ले सकता था। वह बंधा पानी था। सरब-सुलभ बहता नीर नहीं। एकनाथ ने कहा ‘भगवान भाषाओं में भेदभाव नहीं करता। किसी को कम किसी को ज्यादा मान्यता नहीं देता।‘ लेकिन हमारी सरकार ऐसा करती है, कहती भले नहीं, और यही करते थे अंग्रेज।

आजाद भारत में जब सरकार के सामने भारतीय भाषाओं की विविधता, उनकी अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता को स्वीकृत करने का सवाल आया तो उसने विविधता की जगह मानकीकरण (स्टैंडराइजेशन) पर बल दिया। विविधता को दरकिनार कर उनके एकता के पहलू खोजने के जरिए मानकीकरण करने पर बल देना दरअसल उनकी स्वतंत्र हैसियत को नकारना था। यह भेद-भाव की नीति की उपज थी। इसी नीति के तहत वह संस्कृत को भाषाओं की भाषा का दर्जा देती है। फिर तो आप मानकीकरण में समाए इस भाव के अपने-आप शिकार हो जाते हैं कि कुछ भाषाएं उच्च कुल की हैं, कुछ नीच कुल की और कुछ पिछड़े कुल की। और इस तरह भाषाओं के भीतर अगड़ा-पिछड़ा, दलित भाषाओं का भेद पैदा होने लगता है। और यह हुआ भी है।

संस्कृत को न केवल जीवित भाषा का दर्जा दिया गया बल्कि अन्य भाषाओं को यह नसीहत भी दी गई कि वे ज्यादा से ज्यादा शब्द संस्कृत से लें। संस्कृत से लेकर अपना शब्द भंडार बढ़ाने को राष्ट्रीय एकता मजबूत बनाने का पर्याय बना दिया गया। और इस हिसाब से हिंदी को सबसे अग्रगणी घोषित किया गया क्योंकि यह माना गया कि हिंदी सीधे संस्कृत के पेट से निकली है। सो जैसे साझा संस्कृति या कहिए सांस्कृतिक एकता का भार संस्कृत ढोती थी उसी तरह आधुनिक भाषा में राष्ट्रीय एकता का भार हिंदी ढोएगी। इस समूचे चक्कर को बाकायदा संवैधनिक रूप दे दिया गया। इस निर्देश के साथ कि हिंदी अपने शब्द भंडार का विस्तार खास तौर पर संस्कृत के शब्द भंडार से शब्द लेकर करेगी।

लेकिन हुआ क्या? संस्कृत से शब्द लेते-लेते, ‘संस्कृत के पेट से जनमी हिंदी’, संस्कृत के पेट में समाने लगी। कुछ और ज्यादे बदशक्ल होकर। शब्द भंडार संस्कृत का, वाक्य प्रकार अंग्रेजी का। रंग नारंगी का और ढंग पिफरंगी का। मुस्टंडे को क्या चाहिए तो हाथ में एक डंडा। और राष्ट्रीय एकता का डंडा लेकर घूमने लगी हिंदी, अपनों से भी बेगानी बनकर। अब अगर आप लोगों को स्वर्ग में ही सही, डंडा मारकर ले जाएं तो कौन जाएगा भला।

कुछ लोगों को यह हिंदी की अपनी निजी प्रकृति लगती है। लेकिन यह हिंदी की अपनी प्रकृति नहीं है। यह पराई प्रकृति है जिसे हिंदी को ओढ़ा दिया गया है। याद रखिए आप किसी भाषा से सिर्फ शब्द भंडार नहीं ले सकते। उसके साथ आपको कमोबेश उसका समूचा संसार, उसकी संस्कृति, उसका संस्कार भी बरबस लेना पड़ता है। संस्कृत के साथ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का बैठाया गया यह रिश्ता एक सोची-समझी नीति का परिणाम है। भाषा के भीतर समाया यह ब्राह्मणवाद है जिसका शिकार सबसे ज्यादा हिंदी हुई है, इससे निजात पाना भाषाओं के प्रति जनतांत्रिक रवैया अपनाने के लिए बेहद जरूरी है। प्रसंगवश यह भी कि इस ब्राह्मणवाद की दूसरी भुजा हिंदू सांप्रदायिकता भी है। इसका भाषाई प्रमाण भी आप देखें तो हिंदी न केवल अपनी बोलियों से दूर जा बैठी बल्कि उर्दू से बैर मोल लेने की हद तक जा पहुंची है। उसी उर्दू से जिसकी वह सहोदर है, जिन्हें कभी एक ही नाम से जाना जाता था। प्रतिक्रिया में उर्दू के भीतर मुल्लावाद ने सर उठाया। वह फारसी होने लगी। आखिर ब्राह्मणवाद, मुल्लावाद भी तो सहोदर हैं। 

जब हमारे शासक वर्ग को यह लगने लगा कि अपने इस रूप में हिंदी बोझ बनने लगी है तो उसमें सुधर के लिए चट उसने दूसरा नुस्खा थमाया- हिंदी को चाहिए कि वह अपना शब्द भंडार अंग्रेजी और अन्य दूसरी भारतीय भाषाओं से भी ले। अन्य भारतीय भाषाओं से भी लेना कथनी है, करनी में होना है अंग्रेजी से लेना। और आजकल टीवी धरावाहिकों और अन्य कार्यक्रमों में जिस तरह की हिंदी अख्तियार की जा रही है, उसे लोग हिंगरेजी कहने लगे हैं। तो जनाब अब भी आपको यह मानने में शक है कि हमारा शासक वर्ग मिजाज से यूरोइंडियन है?

लेकिन जनजीवन के स्तर पर हिंदी ने दूसरा ही रास्ता अख्तियार कर रखा है। हिंदी का बिहारी रूप, बिहारी हिंदी के बतौर तो खासा परिचित है ही। इसी राह पर उसके और भी किसिम-किसिम के रूप आप देख सकते हैं। कहीं बंगाली हिंदी, कहीं मेघालयी और कहीं तमिल हिंदी आदि रूपों में। फिल्मी हिंदी से तो शायद ही कोई अपरिचित हो। अपने जन चरित्र को विकसित करने में हिंदी को किसी बनावटी शुद्ध रूप की चिंता नहीं है। यही उसका मूल स्वभाव रहा है। भक्ति आंदोलन से उपजा हिंदी-उर्दू का यह स्वभाव ही आजादी के दिनों में सबके दुलार का कारण बना था। इससे अलग होकर वह सबके हिकारत और तिरस्कार का पात्र बन रही है। खुद उनके हिकारत का भी जिनके बीच वह बोली जाती है। अपने मूल जीवन-द्रव्य के लिए हिंदी ‘हिंदी अधिकारियों’, ‘हिंदी सेवकों’, ‘संवैधनिक व्यवस्थाओं’ की मुहताज नहीं है। इसका जीवन-रूप संवैधनिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करके ही विकसित हुआ है। वरना हिंदी सेवकों ने इसे मार डालने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रखी है।

भाषा में समाया ब्राह्मणवाद हिंदी तक ही नहीं सीमित है। इसका असर कमोबेश सभी प्रांतीय भाषाओं पर भी है। भाषायी आधर पर राज्यों का गठन एक स्तर पर कमोबेश हुआ। लेकिन यह अंत नहीं है। हर प्रदेश की राज्य भाषा अपने प्रदेश की अन्य दूसरी भाषाओं, बोलियों के साथ भेदभाव बरतती दिखती है। इस प्रक्रिया में उनका भी विकास पथरा रहा है, लेकिन उनका भी जीवनगत रूप दूसरा ही रास्ता अख्तियार कर रहा है, वैसा ही जैसा हिंदी ने अपना रखा है। भारतीय भाषाओं के बीच यह रिश्ता ही भविष्य की एकता का नया आधर है।



भाषाओं का जनतंत्र जनता के जनतंत्र से सीधे जुड़ा हुआ है। तत्सम के खिलाफ देशज का विद्रोह आज सभी भारतीय भाषाओं, खासकर हिंदी का जीवन-स्रोत है वरना वह राम-प्यारी हो जाएगी।

2 comments:

  1. क्या ऐसा नहीं लगता कि इसमें आपकी एक भाषा के प्रति दुर्भावना ही नहीं, अन्य विचार भी सामने निकल कर आ रहे हैं ? सिलसिलेवार देखते हैं :

    1. "किन लोगों को देववाणी में समाचार सुनाये जा रहे हैं ? पितरों को ?" ये कहते समय आप भूल जाते हैं कि भारत में कुछ गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी संस्कृत ही भाषा के तौर पर इस्तेमाल होती है | अगर "सुधर्मा" जैसे अखबार की सदस्यता देखें तो वो भी काफ़ी है | भारत में कई संस्कृत विद्यालय और विश्वविद्यालय भी हैं, उनके छात्रों-अध्यापकों को भी जरुरत पड़ती होगी | इसके अलावा विदेशों में जिन जगहों पर संस्कृत का पठन-पाठन होता है, उन सब को भारत का सिर्फ कल का इतिहास, विज्ञान, साहित्य पढ़ने की ही जरुरत नहीं होगी | शायद वो भारत के अभी के हाल के बारे में भी जानना चाहेंगे |

    ऐसे में इस समुदाय को आप क्यों छोड़ कर आगे बढ़ना चाहते हैं ? सिर्फ इसलिए कि वो संख्या में कम हैं ? अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की वकालत का क्या हुआ ?

    2. यक़ीनन आपको पंडित मदन मोहन मालवीय के हिंदी भाषा के आन्दोलन का पता होगा | इस आन्दोलन के तहत ही भारत में सन 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी | आप हिंदी के आन्दोलन में संस्कृत पर ज़ोर डाले जाने के कारण, यानी प्रतिक्रिया स्वरुप उर्दू के अरबी-फ़ारसी हो जाने का जिक्र करते हैं | तो जनाब आपको अच्छी तरह पता है कि कई साल पहले ही यानि सन 1875 में किस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी ?

    आप जान बूझ कर उलटी स्थापना किन ऐतिहासिक तथ्यों अथवा लोक कथाओं के आधार पर कर रहे हैं ? अथवा ये स्थापना कोई नया मिथक गढ़ने का प्रयास समझा जाए ?

    3. संविधान में आप पूरे देश पर हिंदी थोपने का आरोप मढ़ते हैं | ये संविधान के किन अनुच्छेदों के आधार पर कहते हैं आप ? क्या वहां स्पष्ट रूप से ये नहीं लिखा कि सभी क्षेत्रीय भाषाओँ को भी उनके इलाके में उतना ही महत्व दिया जायेगा ? क्या उसी संविधान में ये नहीं लिखा कि सर्वोच्च न्यायलय का काम काज अंग्रेजी में जारी रखा जायेगा | क्या ये संविधान के स्पष्ट संदेशों को शब्द खा खा के पढना नहीं है ?

    4.

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